एक छोटी कहानी बहुत दुख भरी सुरेश एक छोटे से गाँव में रहता था। उसके पास एक छोटी-सी झोपड़ी थी, जिसमें उसकी पत्नी और एक बेटा रहते थे। वह दिन-रात मेहनत करता, पर जो कमाई होती, वह मुश्किल से घर का गुज़ारा चलता।
एक दिन सुरेश के बेटे, रोहित को अचानक तेज़ बुखार हो गया। सुरेश और उसकी पत्नी ने गाँव के वैद्य से इलाज कराया, पर रोहित की तबियत और बिगड़ने लगी। सुरेश ने शहर के डॉक्टर के पास जाने का सोचा, लेकिन उसके पास पैसे नहीं थे। उसने गाँव के मुखिया से उधार माँगा, लेकिन मुखिया ने मना कर दिया।
सुरेश का दिल टूट गया। उसने गाँव में हर किसी से मदद माँगी, लेकिन किसी ने उसकी हालत पर ध्यान नहीं दिया। रोहित की हालत दिन-ब-दिन खराब होती गई, और एक रात उसने अपनी माँ की गोद में आखिरी साँस ली।
सुरेश और उसकी पत्नी के लिए यह असहनीय था। उनकी दुनिया उजड़ गई थी। सुरेश की आँखों में आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। उसने अपने बेटे को खो दिया था, और उसके साथ उसकी सारी उम्मीदें भी चली गईं। गाँव के लोग उसकी मदद कर सकते थे, लेकिन किसी ने नहीं किया। अब सुरेश के जीवन में एक सन्नाटा छा गया था, जो कभी नहीं टूटेगा।
उसने दुनिया से मुँह मोड़ लिया और अकेलेपन में डूब गया, अपने बेटे की यादों में।
आगे क्या हुआ?
रोहित के जाने के बाद, सुरेश और उसकी पत्नी सविता के जीवन में एक गहरा शून्य आ गया था। वे दिन-रात रोहित की याद में खोए रहते थे। उनके जीवन की सारी खुशियाँ खत्म हो चुकी थीं। गाँव वाले भी उनके दुख से वाकिफ थे, लेकिन समय के साथ उनकी सहानुभूति भी कम होने लगी।
कुछ महीनों बाद, एक दिन गाँव में एक नया शिक्षक आया। उसका नाम अनिल था। अनिल ने सुरेश और सविता के दुख के बारे में सुना था। वह उनके घर आया और धीरे-धीरे उनके साथ बातचीत करने लगा। उसने देखा कि सुरेश और सविता के दिल में अभी भी बहुत दर्द था, लेकिन वह यह भी समझ गया कि उन्हें अब ज़िंदगी में आगे बढ़ने की जरूरत थी।
अनिल ने सुरेश से कहा, "मैं समझ सकता हूँ कि आपने अपने बेटे को खोया है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस गाँव में और भी बच्चे हैं जिन्हें आपकी ज़रूरत है? आप अपने दुख को अपनी ताकत बना सकते हैं और इन बच्चों को शिक्षित कर सकते हैं। इससे न केवल आपको सुकून मिलेगा, बल्कि आप अपने बेटे की याद में कुछ अच्छा कर पाएंगे।"
सुरेश पहले तो हिचकिचाया, लेकिन सविता ने उसे समझाया कि शायद यही भगवान की मर्जी है। धीरे-धीरे, सुरेश ने गाँव के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उसने अपनी सारी मेहनत और प्यार उन बच्चों में डाल दी।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, सुरेश ने महसूस किया कि उसके दिल का घाव थोड़ा-थोड़ा भरने लगा है। बच्चे भी सुरेश को बहुत पसंद करने लगे थे, और वह उन्हें अपने बेटे की तरह समझने लगा।
सविता भी बच्चों के लिए खाना बनाती और उनकी देखभाल करती। उसने देखा कि सुरेश फिर से खुश होने लगा है, और उसकी आँखों में अब एक नई चमक थी।
कुछ वर्षों बाद, गाँव में शिक्षा की स्थिति काफी सुधर गई। सुरेश की मेहनत ने गाँव के बच्चों का भविष्य बदल दिया था। लोग अब सुरेश को एक आदर्श के रूप में देखने लगे थे।
हालांकि सुरेश और सविता अपने बेटे को कभी नहीं भूल पाए, लेकिन उन्होंने यह सीखा कि दुख को सहने के बाद भी ज़िन्दगी में आगे बढ़ना जरूरी है। उन्होंने अपने दर्द को दूसरों की भलाई के लिए इस्तेमाल किया और इस तरह उन्होंने अपने बेटे की याद को हमेशा के लिए जिंदा रखा।
गाँव के बच्चे अब बड़े होकर सुरेश को धन्यवाद देते थे, और सुरेश को यह एहसास होता था कि रोहित की कमी भले ही कभी पूरी नहीं हो सकती, लेकिन उसके जीवन का मकसद अब बदल गया था।
सुरेश का अंत क्या हुआ?
सुरेश ने अपने जीवन के बाकी दिन गाँव के बच्चों को पढ़ाने और उनका मार्गदर्शन करने में बिताए। उसके अंदर का दर्द कभी पूरी तरह नहीं गया, लेकिन उसने उस दर्द को अपने कार्यों में बदल दिया। समय बीतने के साथ, सुरेश गाँव में एक सम्मानित और प्रिय व्यक्ति बन गया। लोग उसे प्यार से "गुरुजी" कहने लगे थे।
सुरेश ने बहुत सारे बच्चों को शिक्षित किया, और वे बच्चे जब बड़े होकर सफल हुए, तो उन्होंने सुरेश को अपनी प्रेरणा माना। सुरेश ने अपने जीवन में बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे थे, लेकिन अंततः उसने अपने जीवन को एक सार्थक दिशा दी।
एक दिन, जब सुरेश की उम्र काफी हो चुकी थी और उसका शरीर कमजोर हो गया था, वह अपने छोटे से घर के आँगन में बैठे हुए आसमान की ओर देख रहा था। उसने महसूस किया कि उसका समय आ गया है। उसकी पत्नी सविता भी उसके पास ही बैठी थी। सुरेश ने उसका हाथ पकड़ा और कहा, "सविता, मैंने जीवन में बहुत कुछ खोया और बहुत कुछ पाया। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि मैंने अपने बेटे की यादों को जीते हुए भी दूसरों के लिए कुछ किया।"
सविता की आँखों में आँसू थे, लेकिन उसने मुस्कुराते हुए सुरेश को सहारा दिया। उस रात, सुरेश ने चैन की नींद ली और सोते हुए ही उसने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उसके चेहरे पर शांति थी, जैसे वह अपने बेटे रोहित से मिलने जा रहा हो।
सुरेश के जाने के बाद, गाँव के लोग उसके घर इकट्ठा हुए। उन्होंने सुरेश को श्रद्धांजलि दी और उसकी याद में गाँव में एक छोटा स्कूल स्थापित किया। उस स्कूल का नाम "रोहित मेमोरियल स्कूल" रखा गया, जहाँ सुरेश ने जिन बच्चों को पढ़ाया था, वे अब अन्य बच्चों को पढ़ाने लगे।
सुरेश के जाने के बाद भी उसकी शिक्षा, उसकी बातें, और उसके द्वारा दी गई प्रेरणा गाँव में जिंदा रही। उसका अंत एक शांत और संतुष्टिपूर्ण जीवन का प्रतीक बन गया। उसने अपने जीवन में जो दर्द सहा, उसे उसने गाँव के बच्चों के भविष्य के लिए एक प्रकाश की किरण में बदल दिया। इस तरह, सुरेश का अंत एक नई शुरुआत का बीज बन गया, जो आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन देता रहा।
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