एक बार एक गरीब लकड़हारा सूखी लकडि़यों की तलाश में जंगल में भटक रहा था। साथ में बोझा ढोने के लिये उसका गधा भी था। लकडि़याँ बटोरते-बटोरते उसे पता ही नहीं चला कि दिन कब ढल गया। शाम का अंधेरा तेजी से बढ़ता जा रहा था लेकिन वह अपने गाँव से बहुत दूर निकल आया था और उधर मौसम भी बिगड़ रहा था।
ऐसे में वापस गाँव पहुँचना सम्भव न था, इसलिये गरीब लकड़हारा उस जंगल में आसरा ढूंढने लगा। अचानक उसे एक साधु की कुटिया नजर आई। वह खुशी-खुशी अपने गधे के साथ वहाँ जा पहुँचा और रात काटने के लिये साधु से जगह माँगी। साधु ने बड़े प्यार से उसका स्वागत किया और सोने की जगह के साथ भोजन- पानी की व्यवस्था भी कर दी। वह गरीब लकड़हारा सोने की तैयारी करने लगा लेकिन तभी एक और समस्या खड़ी हो गई।
दरअसल उसने काफी ज्यादा लकड़ी इकट्ठा कर ली थी और उसे बाँधने के लिये उसने सारी रस्सी इस्तेमाल कर ली थी। यहाँ तक कि अब उसके पास गधे को बाँधने के लिये भी रस्सी नहीं बची थी। उसकी परेशानी देखकर वह साधु उसके पास आये और उसे एक बड़ी रोचक युक्ति बताई। उन्होंने कहा कि गधे को बाँधने के लिये रस्सी की कोई जरूरत नहीं, बस उसके पैरों के पास बैठकर रोज की तरह बाँधने का क्रम पूरा कर लो।
इस झूठ-मूठ के दिखावे को गधा समझ नहीं पायेगा और सोचेगा कि उसे बाँध दिया गया है। फिर वह कहीं जाने के लिये पैर नहीं उठायेगा। लकड़हारे ने और कोई चारा न देखकर घबराते-सकुचाते साधु की बात मान ली और गधे को बाँधने का दिखावा करके भगवान से उसकी रक्षा की प्रार्थना करता हुआ सो गया।
रात बीती, सुबह हुई, मौसम भी साफ हो गया। जंगल में पशु-पक्षियों की हलचल शुरू हो गई। आहट से लकड़हारे की नींद खुल गई। जागते ही उसे गधे की चिन्ता हुई और वह उसे देखने के लिये बाहर भागा। देखा तो गधा बिल्कुल वहीं खड़ा था जहाँ रात उसने छोड़ा था।
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लकड़हारा बड़ा खुश हुआ और साधु को धन्यवाद करके अपने गधे को साथ लेकर जाने लगा लेकिन यह क्याॽ गधा तो अपनी जगह से हिलने को तैयार ही नहीं। लकड़हारे ने बड़ा जोर लगाया, डाँटा-डपटा भी लेकिन गधा तो जैसे अपनी जगह पर जमा हुआ था। उसकी मुश्किल देखकर साधु ने आवाज लगाकर कहा- अरे भई, गधे को खोल तो लो। लकड़हारा रात की बात भूल चुका था, बोला- महाराज, रस्सी तो बाँधी ही नहीं फिर खोलूं क्याॽ
साधु बोले- रस्सी छोड़ो, बन्धन खोलो जो रात को डाले थे। जैसे बाँधने का दिखावा किया था वैसे ही खोलने का भी करना पड़ेगा। उलझन में पड़े लकड़हारे ने सुस्त हाथों से रस्सी खोलने का दिखावा किया और गधा तो साथ ही चल पड़ा।
आश्चर्यचकित गरीब लकड़हारा को समझाते हुये साधु ने कहा- कर्म तो कर्म हैं चाहे वह स्थूल हों या सूक्ष्म। हम भले ही अपने कर्मों को भूल जायें पर उनका फल तो सामने आता ही है और फिर उसका भुगतान करने के लिये, उसे काटने के लिये नया कर्म करना पड़ता है। वहाँ कोई मनमर्जी या जोर-जबर्दस्ती नहीं चलती।
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कर्म मात्र में ही मनुष्य का अधिकार है कर्मानुसार फल तो प्रकृति स्वयं ही जुटा देती है किन्तु फल की प्राप्ति पुन: कर्म की प्रेरणा देती है। अत: एक प्राणी का कर्तव्य है कि प्रत्येक कर्म विचार पूर्वक तथा जिम्मेदारी के साथ करे। कर्म के रहस्य को समझ कर ही हम सुखी हो सकते हैं अन्यथा पग-पग पर हमें उलझन का ही सामना करना पड़ेगा!
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